|
२४ जून, १९६७
कहनेके लिये बहुत-सी चीजें हैं, लेकिन... अन्ततक पहुंचना ज्यादा अच्छा है । यह एक वक्राकार है । अंततक पहुंचना ज्यादा अच्छा है । अभीसे बोलना जल्दबाजी होगी ।
(कुछ देर मौन) शरीरकी गतियां, लगभग पूर्ण रूमसे, अम्यासगत गतियां द५ाएती है । उनके पीछे, भौतिक मनकी चेतना होती है (जिसे मैं कोषाणु- गत मन कहती हू), जो अपने-आप भागवत उपस्थितिके बारेमें हमेशा सचेतन रहता है और उसे आग्रह होता है कि उस उपस्थितिके सिवाय ओर किसीको स्वीकार न करे । इस प्रकार परिवर्तनके लिये, गतिविधिके मृल्स्रोतको बदलनेके लिये पूरा-पूरा काम हों रहा है । मेरे कहनेका आशय यह है कि महज यंत्रवत् आदत गतिकी प्रेरक न हों बल्कि दिव्य सत्ता और चेतना सहज प्रेरक हों । (माताजी शरीरमें दिव्य चेतनाको प्रविष्ट करानेकी मुद्रा करती है) ।
लेकिन इसे समझाना बिलकुल, एकदम असंभव है, यानी, जैसे ही तुम इसे व्यक्त करना शुरू करो कि वह मानसिक चीज बन जाती है, अपने- अत नहीं रूह पाती । इसीलिये इसे व्यक्त करना बहुत कठिन है । मैं उसके बारेमें नहीं बोल सकती ।
फिर भी, अभी बहुत दिन नहीं हुए, मैंने शायद तुम्हें अत्यधिक भौतिक चेतनामें नाटकके लिये .रुचि और आदतके बारेमें अपना अवलोकन बताया था । वह आरंभर्नबंदु था । जैसे ही वह आदत सचेतन हुई कि मानों वह विजातीय बन गयी, सत्य चेतनाके लिये विजातीय और तबसे स्थानान्तरणका कार्य शुरू हो गया ।
यह बहुत नाजुक और कठिन काम है ।
इसका अर्थ है हज़ारों वर्ष पुरानी आदतसे लड़ना । भौतिक चेतनाकी यांत्रिकता बहुत नाटकीय है, लगभग विनाशकारी, कभी-कमी नाटकीय, कभी ऐसे काल्पनिक निष्कर्षके साथ नाटकीय जो नाटकको मिटा देता है । लेकिन व्यक्त करते ही यह सारा-का-सारा बहुत अधिक ठोस बन जाता है । उसके बारेमें न बोलना ही अच्छा है । जैसे ही उसे कहा जाय वह कृत्रिम बन जाता है ।
यह लगभग ऐसा है जैसे एक आदत हटानेके लिये उसकी जगह और एक आदतको बिठानेका प्रयास किया जाय (!) क्या चेतनाकी यह अवस्था, होनेका यह तरीका, अस्तित्वका यह मार्ग, प्रतिक्रिया करने या अभिव्यक्त करनेका यह
तरीका भागवत अभिव्यक्तिकी ओर संकेत करता या अभिमुख होता है? क्या यह भागवत अभिव्यक्तिकी ओर प्रवृत्तिका समर्थन करता है?.. विचार मौन, अचल है, कल्पना काम नहीं करती (यह सब स्वेच्छापूर्वक), और गति भागवत उपस्थितिके प्रभावके अधीन जितना हों सके सच्ची और सहज बननेकी कोशिश कर रही है ।... शब्द हर चीजको बिगाड़ देते !
समय-समयपर - समय-समयपर अचानक. ठोस अनुभूति, बिजलीकी चमककी तरह, भागवत उपस्थितिकी अनुभूति, तादात्म्य । परंतु यह कुछ सेकंडोंके लिये रहता है और फिर पहलेकी तरह शुरु: होता है ।
इसे व्यक्त नहीं किया जा सकता ।
माताजी श्रीअरविदके दो उद्धरणोंका अनुवाद लेती है जिन्हें वे अगले बुलेटिनमें छपाना चाहती है ।
''यह साधनाका एक महान् रहस्य है -- सब कुछ अपने मनके प्रयाससे करनेकी जगह ऊपर या पीछे स्थित शक्तिके द्वारा काम करवानेकी तरकीब जानना ।',
ठीक यही है !
''शरीरका महत्व स्पष्ट है । मनुष्य पशुसे ऊपर उठा है क्योंकि उसने एक ऐसा शरीर विकसित किया है, या एक ऐसा शरीर और मस्तिष्क पाया है जो प्रगतिशील मानसिक प्रकाशको ग्रहण करने और उसकी सेवा करने योग्य है । इसी तरह, एक ऐसा शरीर विकसित करके या कम-से-कम भौतिक यंत्रकी क्षमताको और भी उच्चतर प्रकाशको ग्रहण करने और उसको सेवाके योग्य बनाकर बह अपनेसे ऊंचा उठेगा और केवल विचारों और अपनी आंतरिक सत्तामें ही नहीं, जीवनमें पूर्णतया दिव्य मानवको चरितार्थ कर सकेगा । अन्यथा या तो जीवनकी प्रतिज्ञा रद्द हो जाती है, उसका अर्थ व्यर्थ हो जाता है, पार्थिव सत्ता अपने-आपको खोकर ही सच्चिदानन्दको पा सकती है, अपने अंदरसे मन, प्राण और शरीरको छोड़कर शुद्ध अनंतमें जाकर ही उसे पा सकती है; या फिर, मनुष्य भागवत यंत्र नहीं है । सचेतन
६४ रूपसे प्रगतिशील शक्ति जो उसे समस्त पार्थिव सत्ताओंमें विशेष स्थान देती है, उसकी भी कोई नियत सीमा है । जैसे मनुष्यने उन्हें हटाकर अगली शक्तिने स्थान लिया है, उसी तरह किसी औरको उसका स्थान लेना और उसके उत्तराधिकारको संभालना होगा ।''
में समझती हू! मैं सारे समय इसमें व्यस्त थी ।
( मौन)
लेकिन श्रीअरविदका निष्कर्ष है कि यह (शरीर) नहीं बदल सकता । कोई नयी ही सत्ता होगी ।
नहीं, बे कहते है 'अगर' यह न बदल सके तो कोई नयी सत्ता होगी ।
नहीं, मेरा मतलब यहां, इस उद्धरणमें नहीं; मेरा मतलब है बादकी लिखा हुई चीजोंमें ।
?...
इसके अतिरिक्त, बात तो एक ही है, क्योंकि... । क्या शरीर बदल सकता है?. -. फिर भी यह बहुत कठिन मालूम होता हे । यह असंभव नहीं है । यह असंभव नहीं है, लेकिन... यह इतना अधिक परिश्रम है और जीवन इतना संक्षिप्त है; और फिर भी, कुछ चीज बदलनी है, हां, घिस जानेकी यह आदत तुक भयंकर चीज है ।
हां, परंतु 'नयी सत्ता' कहांसे आयेगी? क्या आकाशसे टपकेगी!
नहीं, हरगिज नहीं, यही तो बात है! हम जितना अधिक देखते है... वह इस तरह नहीं आयेगी (माताजी हंसती हैं) । स्पष्ट है कि वह भी उसी तरह आयेगी जैसे पशुसे मनुष्य आया । लेकिन पशु और मनुष्यके बीचकी अवस्थाएं नहीं मिलतीं । हम उनके बारेमें सोचते हैं, कल्पना करते हैं, हमने कुछ चीजें फिरसे ढूंढ ली हैं, लेकिन सच पूछो तो हम वहांपर उपस्थित
६५ न थे! हम नहीं जानते कि यह कैसे हुआ । लेकिन इसका महत्व नहीं है ।... कुछ लोगोंके अनुसार, हम बालकके निर्माणमें सचेतन रूपसे रूपांतरकार कार्य अपने अंदर शुरू कर सकते हैं । यह संभव है, मैं ना नहीं करती । यह संभव है । और तब, उसे अधिक रूपांतरित सता तैयार करनी होगी और इस तरह चलता चलेगा । इस तरह कई अवस्थाए होगी जो उसी तरह गायब हो जायंगी जैसे वानर और मनुष्यके बीचकी अवस्थाएं गायब हो गयी?
हां, मानव-पूर्णताकी प्रक्रियाकी यही तो संपूर्ण कहानी हैं ।
तुम जो चाहे नाम दे लो । पर एक नयी सत्ता... जहांतक हमारा संबंध है, हम यह कल्पना करते हैं कि जैसा तुम कहते हों, एक नयी पूर्वनिर्मित सत्ता तैयार मालकी तरह उतर आयेगी... यह शुद्ध रूपसे अतिरंजन हैं !
श्रीअर्रावंद भी ठीक यही कहते हैं, उसे बनाना होगा ।
यह तो दो, तीन, चार या दस-बीस, मुझे नहीं मालूम कितनी मध्यवर्ती सत्ताओंके बाद नयी विधि आयगी, वह निर्माणकी अतिमानसिक विधि होगी ।.. लेकिन क्या बच्चे पैदा करना जरूरी होगा? जिन लोगोंके अन्त आ जायगा उनका स्थान लेनेके लिये बच्चोंकी जरूरत समाप्त न हों जायगी, क्योंकि तब लोग अनिश्चित कालतक बने रहेंगे? वै नयी जरूरतोंको पूरा करनेके लिये अपने-आपको काफी रूपांतरित कर लेंगे ।
सुदीर्घ भविष्यमें इस सबकी भली-भांति कल्पना की जा सकती है ।
हो, सुदूर '
लेकिन आप ठीक इसीलिये हैं ताकि दूरीको छोटा कर दें ।
नहीं, श्रीअरविंदने उसे निकट भविष्यमें नहीं देखा ।
हां, पर यह आपको ही करना होगा । चाहे सुदूर भविष्य
६६ हो या निकट भविष्य, करना आपको ही होगा । इसी जीवन और इसी शरीरमें ।
लेकिन मैं..
में उसे करनेकी कोशिश कर रही हू -- किसी मनमाने संकल्पसे नहीं, इस प्रकारकी कोई चीज नहीं है । केवल 'कोई चीज', या 'कोई सत्ता' या 'चेतना', या कोई और चीज ऐसी है (मैं उसके बारेमें बात नहीं करना चाहती), जो इसका (माताजीका शरीर) उपयोग कर रही है और इसमें- सें कुछ बनाना चाहती है । इसका मतलब यह हुआ कि एक ही समयमें मैं कर भी रही हू और साक्षी भी हू । और 'मैं', मुझे नहीं मालूम कि वह कहां है : वह यहां, अंदर नहीं है, वहां ऊपर नहीं है, वह..! मुझे मालूम नहीं कि वह कहा है, यह भाषाकी आवश्यकताके। लिये है । ''कोई चीज'' है जो कार्य कर रही है और साक्षी भी है और साथ-ही-साथ वह क्रिया भी है जो की जाती है : तीनों ।
क्योंकि स्वयं शरीर अब सचमुच यथासंभव सहयोग देता है -- यथा- संभव - सद्भावना और सहनशीलताकी बढ़ती शक्तिके साथ सहयोग और सचमुच अपनी ओर लौटना बिलकुल कम होता जाता है (वह उप- स्थित तो है लेकिन केवल एक ऐसी चीजके रूपमें जो कभी-कभी छूती- भर है और कुछ सेकेंडोंके लिये भी नहीं रहती) । वह, यानी, अपनी ओर मुड़ना, पूर्ण रूपसे एक ऐसा वातावरण है जो वीभत्स, घिनौना और विनाश- कारी है । वह ऐसा हीं है, उसका अनुभव मी इसी तरह किया जाता है । और वह अधिकाधिक असंभव होता जा रहा है, मैं उसे देखती हू । वह दृश्य है... लेकिन फिर भी बुरी आदतोंका हजार वर्ष पुराना भार है जिसे निराशावाद कहा जा सकता है । वह क्षति, विपत्ति आदि सब प्रकार- की चीजोंकी आशा करता है और इसे शुद्ध करना, पवित्र करना और वातावरणमेंसे निकाल फेंकना सबसे कठिन है । यह इतना अंदर धंसा दुग्ध है कि सहज बन गया है । अनिवार्य पतन या क्षतिकी भावना ही बहुत बड़ी, सबसे बड़ी रुकावट है ।
स्वभावतः, मानसिक दृष्टिकोणसे सारा पार्थिव वातावरण ऐसा ही है, लेकिन मनमें इसका महत्व बहुत कम है । प्रकाशकी एक किरण आ जाय तो यह साफ हों जाता है । लेकिन यहां, अंदर (शरीर दिखाते हुए), यहां यह आदत -- यह विनाशकारी आदत -- बहुत भयंकर है । इसका प्रतिकार करना बहुत अधिक कठिन है । और यह अनिवार्य है कि यह गायब हों जाय ताकि दूसरी चीज अपने-आपको उसके स्थानपर प्रतिष्ठित कर लें ।
तो यह हर क्षण, हर मिनट, सदा चलती रहनेवालि, सदा चलती रहने- वाली लड़ाई है ।
और तब तुम्हें पता लगता है कि सत्ताको अलग नहीं कर दिया गया है, शरीर, अलग नहीं है । यह न्यूनाधिक रूपमें एक भीड़ है जिसमें सन्निकटताके स्तर हैं । इनमें सबसे निकट वे सब हैं जो यहां है, और समस्या वही है--वही समस्या । क्योंकि इस शरीरकी चेतनामें जो कुछ प्राप्ति हुई है वह दूसरोंकी चेतनामें जरा भी प्राप्त नहीं हुई है । इस कारण श्रम-भार बढ़ जाता
हम कह सकते हैं कि मानसिक और प्राणिक संक्रमणकी समस्या हल हो गयी है, पर भौतिक संक्रमणकी समस्या बाकी है ।
और इस भौतिक चेतनामें भौतिक मन है जिसने इस अद्भुत रीतिसे यहां प्रत्युत्तर दिया है, (श्रीमामें) लेकिन इसके अंदर वह शक्ति नहीं है जो सहज रूपमें बाहरसे आनेवाले संक्रमणका सामना कर सकें । यह संक्रमण सदा, सर्वदा, हर क्षण होता रहता है।
(लंबा मौन)
जब अचानक संपर्क सचेतन हो जाता है और तादात्म्यका भाव आता है, जैसा मैंने कहा, यह कुछ सेकेंडोंके लिये ही होता है, लेकिन जब वह आता है.. - तो यह शरीरके कोषाणुओंका स्तवगान होता है जो कहते है. ''हां, ठीक है, ठीक है, यह बात सच्ची है, हां, यह सत्य है ।''...
यह शायद दिनमें सौ बार आता है, पर टिकता नहीं ।
६७ |